मूर्ति विसर्जन की परम्परा और नदियों में बढ़ता प्रदूषण।

हमारे देश दुर्गा पूजा, गणेश चतुर्थी, सरस्वती पूजा आदि जैसे त्योहारों पर लम्बे समय से मूर्ति विसर्जन की परंपरा रही है।

लेकिन हमारे देश में समय-के साथ बढ़ती आबादी के कारण नदियों में मूर्ति विसर्जन इतने बड़े पैमाने पर किया जाने लगा है कि जिसके कारण हमारी इन पवित्र नदियों के अस्तित्व पर ही संकट उत्पन्न होने लगा है। सरकार द्वारा चलाए जा रहे तमाम जागरूकता अभियानों के बावजूद नदियों में मूर्ति विसर्जन के नकारात्मक प्रभाव इतने प्रमुख हैं कि इन्हे नजरअंदाज नही किया जा सकता है।

हमारे देश की नदियों को सबसे ज्यादा नुकसान इन प्लास्टर ऑफ पेरिस की बनी मूर्तियों से होता है। प्लास्टर ऑफ पेरिस यानि पीओपी की बनी हुई मूर्तियों विसर्जन के बाद को पानी में पूरी तरह से घुलने में कई महीनों से लेकर कई सालों का वक्त लग जाता है जबकि प्रकृतिक रूप से पाई जाने वाली मिट्टी से बनी मूर्तियाँ पानी में डूबने के बाद कुछ ही समय बाद घुल जाती हैं।

इसके अलावा मूर्तियों को सजाने के लिए रासायनिक पेंट का का उपयोग किया जाता है जो मूर्ति विसर्जन के बाद नदियों के जल को प्रदूषित करते हैं।

सनातन धर्म में नदियों को जीवनदायिनी कहा गया है लेकिन आज के समय में हमारी नदियों को मूर्ति विसर्जन से होने वाले प्रदूषण से बचाना एक भक्त के रूप में हमारी नैतिक जिम्मेदारी है। हमें आज के समय कुछ ऐसे विकल्प तलाशने की जरूरत है जिससे हमारी नदियों की पवित्रता भी बनी रहे और प्राचीन समय से चली आ रही हमारी परम्परा भी बनी रहे।

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